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भारतीय संस्कृति की विविधता ही उसकी मूल विशेषता हैl जब हम आदिवासी संस्कृति पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं कि इनमें भी विविधता की कोई कमी नहीं हैl लेकिन सभी आदिवासीयों की अपनी एक खास संस्कृति और सभ्यता है, जिसके कारण ही अभी तक उसकी एक खास अलग पहचान बनी हुई है l जब से मनुष्य इस धरती पर जन्म लेता है, तब से वह अपने जाति या समाज का कुछ नियम ,धर्म, रीति-रिवाज, परम्परा एवं सामाजिक संस्कार से अपने को जुड़ा हुआ पाता हैl इन्हें वह जीवन के अंतिम दौर तय करने तक ईमानदारी से निभाने का प्रयासर करता हैl हम सभी जानते हैं कि आदिवासी प्रकृति पुजारी हैं, इसलिए वे अपने सभी पर्व-त़्योहार में प्रकृति के पेड़-पौधों की पूजा करते हैं, जैसे सरहुल(ख़द्दी) में साल(सखुवा/सराई) पेड़ के फूल, करम मेें करम डाल, कदलेटा में भेलवा का तथा हरियाली में सभी अनाजों की पुजा की जाती हैl इससे यह साबित होता है कि वह आदिवासियों का अस्तित्व का रक्छक, आध्यात्मिक जीवन दर्शन और सामाजिक परम्पराओं का प्रतीक है l प्रकृति आदिवासी जीवन परम्पराओं में ऐसा रच-बस गया है कि उसे जीवन पहलुओं से अलग नहीं किया जा सकता है l पर आज सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि इस आधुनिकता की दौड़ में अपने को प्रतिस्पर्धा में डालकर अपने भाषा और संस्कृति एवं परम्परा से पूर्वजों द्वारा पर्व-त्योहार को मनाने का नेग-दस्तूर, पूजा-पाठ तथा नाच-गान, बाजा का ताल और विभिन्न मौसमी नाच-गान को भूलते जा रहे हैंl इसके साथ आदिवासी अपने हाथों से अपनी जल,जंगल, जमीन को लुटा रहे हैंl
आज हमारी आदिवासी भाषा, संस्कृति, वेष-भूषा भी मिटती जा रही हैl आज हमें एकजुट (पाड़हा व्यवस्था को कायम कर) होकर अपनी अस्तित्व को बचाने के लिए अबिलम्ब प्रयास करना होगा, खास कर नई युवा पीढ़ी को , जो आज काफी तेजी से अपनी परंम्पारिक संस्कृति से विमुख होती नजर आ रही हैl उनमें भारी बिचलन है, भटकाव है, चाहे वह भाषाई भटकाव हो, सांस्कृतिक या सोच की व उनकी मानसिकता की, उनमें अपने समाज, धर्म और संस्कृति के प्रति अच्छे विचारों की ओर उनकी रूझान को प्रवाहित करने की अति आवश्यक हैl
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