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गोंदोला (गोंडवाना) एक समूह व्यवस्था है जो विज्ञानवाद एवम प्रकृतिवाद में विश्वास रखती हैं.. जिसमे गोंडों के कर्म आधारित कई समूह हैं ।
जैसे- बैगा गोंड(बैद्य),माड़िया गोंड (जंगलों की रक्षा करनेवाला ),पाटाड़ी गोंड(पेन पाटाओं द्वारा पुरखा का बखान करनेवाला) ,राज गोंड (राजपाठ से संबंधित)ऐसे कई समूह हैं, आज इसमेंसे कुछ समूहों ने अपनी पुरखा संस्कृति को छोड़ दिया हैं या भूल गए हैं और बाहरी संस्कृति के गुलाम बन गए है ..लेकिन कुछ समूह ऐसे भी हैं जो आज भी गोंदोला की पेनसंस्कृति, पुरखा संस्कृति को संजोए हुए हैं...
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के
पांढरकवड़ा,झरीजामणी,घाटंजी,मारेगाव, वणी जैसे इलाको में भावई (वैशाख) महीने में पूर्णिमा के दिन गोंड ,कोलाम गोंड, पाटाडी गोंड (परधान) लोग अपने पेनों का महोत्सव बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं...जिसमें पेरसापेन और भिवसन महोत्सव शामिल है ।
यहां गोंडों के पेन कभी मंदिर या घर मे नही रहते हैं वो हमेशा प्रकृति के बीच जंगलों में,खेत में पेड़ों एवम घास मिट्टी से बने ठानाओं में रहते हैं ... वैसे प्रकृति में विलीन सभी तत्वों को पेन रूप में पूजा जाता हैं ...
चार पेन ,पांच पेन ,छह पेन ,सात पेन धारी सभी लोग अपने अपने कठोडा (मण्डा ) में पाँच दिन एकसाथ रहते हैं, पेनों को गाँव मे लाना,स्वागत करना ,मुर्रा ,गुड़, चना का विदुर चढ़ाना,भाव देना,गाँव बांधना, पेनों को नदी,डोह ,तालाब पर नहाने ले जाना फिर सभी नेंग-सेंग प्यार से अपने पेनों से अपने पुरखो के रूप मे उनके साथ नाचना ,गाना और उन्हें समझने का प्रयास करना होता हैं ...। इस बीच कुल वधुओं की पेनों से मुलाकात (भेटि कोडियार),मरे हुए लोगों के तुम सार प्रक्रिया कर उन्हें वेन से पेन में विलीन भी कीया जाता है... क्योकि गोंडी संस्कृति में जब तक नई बहुओं की पेनों से मुलाकात ना कि जाए तब तक वो उस कुल के पेनों को देख नही सकती या पेन कार्यो में शामिल भी नही हो सकती हैं, इसलिए कोडियार भेट जरूरी समझी जाती हैं.....
जब पेनों को कोसों दूर जंगोलो,पहाड़ों के बीच से नदी पर नहाने ले जाते हैं तब छोटे छोटे बच्चे,बुजुर्ग ,महिलाएं एक महीना बिना चप्पल से रहते हैं और पेनों के साथ भी आते हैं.. उन्हें कभी काटा नही चुभता, भूख नही लगती, धूप नही लगती , पैर नही जलते क्योकि इसमें भी विज्ञान होता हैं ,जब कड़ी धूप में बिना चप्पल चलने से पसीना निकलता हैं उससे कई बीमारियां ठीक हो जाती हैं...मैंने यह पोस्ट अपने स्व अनुभवों के आधार पर लिखी हैं ..पेनों से संबंधित बहुत गहरी बातें हैं जो सोशल मीडिया में लिखना उचित नही समझती ,उसे जानने समझने का प्रयास हम सबको करना है...कुछ अनुभव अगली पोस्ट में शेअर करूंगी, क्योकि हमारी संस्कृति हमारी पहचान हैं .......
मावा समदिर पेन पुरखातून सेवा जोहार किन्तोंन..
जय सेवा ।
जय जंगोम।
जय गोंडवाना ।
वरखडे सुवर्णा बबनराव
पांढरकवड़ा
( आपके सुझाव,समीक्षाएं आमंत्रित हैं )
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