आजकल परंपरागत पोशाक पहनने का प्रचलन सिर्फ शादी-विवाह में ही सिमटकर रह गया है। पाबूम-पांडुम त्योहारों में भी अब कम ही देखने को* *मिलता है कि किसी ने परंपरागत पहनावा पहना है। धोती-कुर्ता, , तो अब कोई नहीं पहनता। हां, कुर्ता-पायजामा , फूलपेंट पहने लोग जरूर नजर आते हैं। सूती या खादी का प्रचलन कम ही है, बस कुछ लोग ही पहनते हैं। खड़ाऊ तो अब गैर आदिवासी लोगों के पैरों में ही नजर आती है। कोयतूर में नही आते है ??
यदि हम महिलाओं के पहनावे की बात करें तो उसमें साड़ी, सलवार कुर्ती, चोली और ब्लाउज, घाघरा, लहंगा, गरारा, ओढ़नी आदि हैं।
पुरुषों के पहनावे में अचकन या शेरवानी, कुर्ता-पायजामा, लुंगी आदि अभी भी प्रचलन में है लेकिन ये खास मौके पर ही देखे जाते हैं।महिलाओं का पहनावा तो बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। अब विवाहित महिलाएं डिकड़ी - झेला बस मौके-झोके पर ही पहनती हैं।
कैसे बचाएं अपनी वेश भूषा संस्कृति को : जरूरी है कि आप कम से कम अपने पाबुन पंडूम - फेस्टिवल कार्य, विवाह, समाज की बैठक, अन्य समारोह आदि में आदिवासी पहनावा पहनकर ही जाएं। अपने बच्चों के लिए भी आदिवासी पहनावा सिलवाएं या बाजार से खरीदकर लाएं। यदि आप ऐसा करेंगे तो आदिवासी वेश भूषा पहनावा की मांग बढ़ेगी जिसके चलते आप अपनी वेश भूषा को बचा पाएंगे। अपनी संस्कृति को बचा पाएंगे
🙏धन्यवाद 🙏
📝आपका अपना
जिला मिडिया प्रभारी बालाघाट (एमपी)
सुबु रावेन गोंड
🙏सेवा 🙏सेवा 🙏सेवा 💐जोहार
0 टिप्पणियाँ