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बोली-भाषा, लिपि एवं साहित्य गोंडी AADIVASI SAMAJ

 *@बोली-भाषा, लिपि एवं साहित्य*

*अब पढ़ लीजिए गोंडी भाषा का इतिहास*


                                                      .,      G0NDI BHASHA SHNBHU SEKH......


           गोंडवाना के ८८ वें शंभू (शंभू-पार्वती) सभ्यता के काल में आर्य जमात का गोंडवाना में प्रवेश हुआ. उनके साथ स्त्रियाँ नहीं थीं. इस समृद्ध सभ्यता वाले भू-भाग में इनके आगमन के पश्चात वे अपने क्रूर, पाश्विक एवं लड़ाकू प्रवृति के कारण गोंडवाना के महामानवों द्वारा धारण किए गए प्राकृतिक, तात्विक एवं नैतिक ज्ञान के अस्त्र-शस्त्रों और बल के मुकाबले में हमेशा परास्त होते रहे. तब उन्होंनें अपने आपको स्थापित करने, श्रेष्ठता तथा समृद्धि हासिल करने के लिए बौद्धिक छल-बल का प्रयोग करना शुरू किए. आर्यों के वर्तमान वैदिक व धार्मिक ग्रंथों में उल्लिखित पात्र नारद के प्रदर्शित चरित्र से इस प्रयोग को समझा एवं जाना जा सकता है.


           गोंडवाना के महामानवों द्वारा गोंडवाना की जनभावनाओं को उद्घृत करने के लिए बोली-भाषा की खोज कर लिए गए थे. डॉ. मोती रावेन कंगाली की पुस्तक "सैन्धवी लिपि का गोंडी में उद्वाचन"उद्धरित है, की सैन्धवी लिपि का सन्दर्भ मोहन जोदड़ों, हड़प्पा, कालीबंग चाहुदरों के पुरातात्विक अवशेष में मिलते हैं, जो सैन्धवी लिपि (पाषाण मुद्रा) में अंकित हैं. पाषाण मुद्राओं में अंकित लिपि विश्व के अनेक पुरातत्ववेत्ताओं, साहित्यकारों के ज्ञान में अपठनीय बना रहा. डॉ. मोती रावेन कंगाली द्वारा इस लिपि का "गोंडी" में उद्वाचन कर यह स्थापित कर दिया कि यह लिपि "गोंडी" के अलावा किसी अन्य भाषा में नहीं पढ़ा जा सकता. इन्ही शैल मुद्राओं में अंकित "चक्र" प्राकृतिक रूप से दाएं से बाएं (Anti-Clock Wise) में घूमने की स्थिति में प्रदर्शित है, जो प्रकृति के संचलन नीयम का प्रतीक है, जिसके आधार पर इस मानव सभ्यता के सभी सांस्कारिक कार्य इस दिशा में संपन्न करने हतु अनुगमित किए जाते थे. चतुरवर्णीय इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता, साहित्यकार यह जानने की हिमाकत नहीं की या यह बताने की कोशिश नहीं की कि सैन्धव सभ्यता गोंडवाना के मूलनिवासियों की समृद्ध सभ्यता थी तथा उनकी बोली-भाषा थी, जिसके आधार पर वे उस काल की व्यापारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कारिक आदि गतिविधियों के संचालन तथा अपनी भावनाओं का बखूबी आदान प्रदान करते थे. इस काल में इतिहास के अनुसार "द्रविण" कहे जाने वाले मूलनिवासी आदिवासियों की सभ्यता का विराट स्वरुप विश्व के इतिहास में पल्लवित किसी अन्य सभ्यता के अवशेष संभवतः नहीं हैं, जिससे यह प्रमाणित होता है कि सैन्धव सभ्यता शंभू सभ्यता के निरंतर प्रकृतिवादी सभ्यता थी. ये अवशेष ईशा से लगभग १०,००० से ५००० वर्ष पूर्व विकसित आदिम सभ्यता की कला-कौशल, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से समृद्ध मानव समाज की सामाजिक जीवन की झाकी है. इस सभ्यता के विकासक्रम के पूर्वार्ध तक कोयामूर द्वीप (शंभू द्वीप/गोंडवाना लैण्ड) में आर्यों का आगमन नहीं हुआ था.


          गोंडी लोकसाहित्य एवं लोकगीतों के अनुसार उल्लेख मिलते हैं कि गोंडवाना के ८८ वें सम्भुओं के काल में ही वाणी का शोध कार्य कर लिया गया था. वाणी की संरचना का आधार गोंडवाना के योगशिद्ध, महायोगी, महाज्ञानी, पराविज्ञानी शंभूसेक के प्रिय वाद्य "डमरू" की ध्वनि को माना जाता है. डमरू के बजने से उत्पन्न लय/ध्वनि "गोएंदाणी" का अपभ्रंश "गोंडवाणी" है.


           इस गोंडवाना भू-भाग में शंभू युग के "पुलसीव" और माता "हिरवा" के महान संतान पहांदी पारी कुपार लिंगों के द्वारा शंभूसेक के निर्देश पर गोटूल के माध्यम से संस्कार, बोली भाषा, संगीत आदि की अनंत सीमा सूत्र की आमजन में उपयोगिता हेतु गहन शोध कार्य कर इसे समाज में अमल में लाया गया. पहांदी पारी कुपार लिंगों ने शंभूसेक की डमरू से उत्पन्न लय/ध्वनि का शोध कर बोली में स्वर-व्यंजन की स्थायित्वता एवं एकरूपता प्रदान की. यही गोंडी/गोंडवाणी गोंडवाना की मूल भाषा कहलाया. रायतार जंगो दाई, धनितर, हीराशूका और कंकालिन दाई जैसे इस युग के अनेक महान संतों ने इन प्रकृतिपूर्ण ज्ञान, संस्कर, बोली-भाषा को मानव समाज में प्रवाहित करने, धारण कराने के लिए अपने जीवन न्योछावर कर दिए. 


           युग परिवर्तन और अनेक मानवीय संघर्षों के शैलाब इन्हें रौंदते हुए आगे बढते गए, किन्तु कराह कम्पित गोंडवाणी अपने अस्तित्व को अक्षुण्य बनाए रखा और अमरता प्राप्त किया. इसकी अमरता को बनाए रखने के लिए सैंधवकालीन सभ्यताओं से मिली चित्रलिपि के मूल अवशेषों का शोध कर परिष्कृत लिपि, पूर्ण गोंडी लिपि आज गोंडीजनो के जीवन व्यवहार का माध्यम है. गोंडी साहित्यकारों का यह कहना कि- "गोंडी के बगैर गोंडवाना को समझना मुश्किल ही नही नामुमकिन है." अतः इसकी सार्थकता की पहचान के लिए नए पीढ़ी के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण बोली-भाषा जानने, सीखने, समझने और सम्मानपूर्वक बोलने की ललक अब समाज में देखी जा सकती है.


          वेद, पुराण एवं वर्तमान साहित्यों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि "संस्कृत" सबसे पुरातन भाषा"देव" भाषा है, किन्तु यह उल्लेखनीय है कि वैदिक ग्रंथों में उल्लेखित "देव सभ्यता" के बाद की मानव सभ्यता "सैन्धव सभ्यता" या "द्रविण सभ्यता" रही होगी. तब यह समझ से परे है कि देव सभ्यता के पश्चात उदय होने वाली मानव सभ्यता (सैंधव सभ्यता) में देव वाणी या देव भाषा कही जाने वाली"संस्कृत" भाषा का समावेश क्यों नहीं मिलता ? "गोंडी" का पुट क्यों मिलता है ?


          सैन्धव सभ्यता के बाद गोंडवाना में कई मानव सभ्यताएं अपनी-अपनी बोली-भाषाओँ के साथ फली-फूलीं तथा समाप्त हुईं. आज देश के अनेक पुरातात्विक, ऐतिहासिक अवशेषों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों में अंकित लिपियों का अध्ययन किए जा चुके हैं. सम्राट अशोक के शासनकाल में बनवाए गए सारनाथ एवं साँची का स्तूफ आदि के शिलालेख "पाली" भाषा तथा "ब्रम्ही" लिपि में पाए गए हैं. देव भाषा संस्कृत का उल्लेख कहीं नहीं मिलता.



@⁨~The Tribal Sena🥰⁩ 

@SUBU_RAVEN_GOND

*(जिला बालाघाट मध्यप्रदेश)*

@सीखे और सिखाए गोंडी भाषा TM

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