आदिवासियों (गोंडवाना भू-भाग के निवासियों)
मेरा भारतीय इतिहास से तात्पर्य नहीं है. भारतीय इतिहास में तो आदिवासी (गोंडी) गण गाथाओं का कसायल गंध भी नहीं मिलता. मुझे तो उस भू-भाग में पल्लवित, पुष्पित आदिम समाज की खुशबू आ रही है, जो अनंतकाल पूर्व इस श्रृष्टि की अगाध जलदाह में अंकुरित सम्पूर्ण भू-मंडल का आधे से ज्यादा हिस्सा "गोंडवाना लैंड" कहलाया और इसके प्रथम अधिपति गोंडवानावासी (गोंड) आदिवासी कहलाए.
गोंडवाना लैंड की उत्पत्ति एवं विकास
आधुनिक युग में कपोल कल्पित बातों, काल्पनिक आस्था एवं तथ्यों का कोई स्थान नहीं है. इस युग के लोग शोधपरख ज्ञान और अनुसंधान पर विश्वास रखते हैं. विश्व स्तर पर वैज्ञानिकों द्वारा ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं पुरातात्विक स्त्रोतों पर किए गए गहन शोध एवं अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि धरती (पृथ्वी) की उम्र ३५ करोड़ वर्ष है. अर्थात धरती की उत्पत्ति लगभग ३५ करोड़ वर्ष पूर्व हुई (यह केवल आदिम साहित्य में उल्लिखित तथ्य है). धरती का स्वरुप प्रारंभ में वायु की गतिशील, द्रवित, तप्त अंगार का गोला था. कालान्तर में यह तप्त अंगार का गोला ठंडा होकर धूल, मिट्टी, पत्थर, चट्टान मिश्रित भू-भाग में परिवर्तित हो गया. यह भू-भाग सम्पूर्ण सृष्टि का एक चौथाई हिस्सा निर्मित हुआ और शेष तीन चौथाई जलमग्न रहा. इस प्रारंभिक भू-भाग को वैज्ञानिकों दारा "पेंजिया" कहा गया. कालान्तर में २० करोड़ वर्ष पूर्व पेंजिया शनैः शनैः दो भागों में विखंडित हुआ. इस पेंजिया के विखंडित भू-खण्डों में से उत्तरी भू-खण्ड को "लौरेशिया" (अण्डोद्वीप) एवं दक्षिणी भू-खण्ड को "गोंडवाना लैण्ड" (गण्डोद्वीप) कहा गया.
लाखों वर्षों के कालान्तर में भू-गार्भिक बदलाव के कारण गोंडवाना लैण्ड (गण्डोद्वीप) शनैः शनैः पुनः पांच भू-खण्डों में विभक्त हो गया, जिससे गोंडवाना का पंचमहाद्वीपीय- अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका, कोयामूर, आस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिका बने. पुरातात्विक, भौगोलिक एवं मानवशास्त्रीय अनुसंधानों ने यह भी सिद्ध किया कि जीव जगत की प्रथम जीव की उत्पत्ति इस श्रृष्टि में व्याप्त सत्व तत्व मिट्टी, हवा, ऊर्जा एवं पोकरण (दलदल) से हुई. गोंडवाना लैण्ड में प्रथम मातृ एवं पितृ शक्तियों से विस्तारित मूल मानव वंश ही आज का गोंड आदिवासी मूलनिवासी समाज है.
प्रकृति एवं मानव समाज में आदिवासियों की भूमिका
प्रकृति के व्यवहार से प्राकृतिक संसाधनों में विभिन्न मौसम चक्र/परिवर्तनों/बदलावों आदि के स्वरुप तथा प्राणीजगत के जीवन चक्रण एवं तात्विक संघर्षण से उत्पन्न तरंगित शक्तियों को अनंतकाल से अपने रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति में समाहित करते हुए जीवन यापन करने वालों को सरल शब्दों में गोंड (आदिवासी) कहा जा सकता है. सीधे शब्दों में- आदि व अनंतकाल से इस धरा (गोंडवाना भू-भाग) पर निवास करने वालों को आदिवासी कहा जाता है. आदिवासी वह है जो अपने जीवन की अटूट आस्था को प्रकृति के कण-कण में स्थापित करता है. इसलिए जीवनदायिनी प्रकृति आदिवासियों द्वारा सर्वोच्चशक्ति के रूप में पूजा जाता है. अतः प्रकृति पर अटूट आस्था एवं विश्वास की सर्वोच्चशक्ति सबसे बड़ा "बड़ादेव" है तथा बड़ादेव के आध्यात्म को मानने वाला गोंड आदिवासी है.
आदिवासियों की आस्था ही नहीं, प्रकृति तत्वों, जीवों एवं वनस्पतियों के व्यवहार का दिव्यदृष्टि परख ज्ञान और विज्ञान की मान्यता भी है कि प्रकृति की सर्वोच्चशक्ति बड़ादेव (निराकार) है. बड़ादेव (जिसमे उत्पत्ति एवं विनाश की शक्ति है) द्वारा प्रकृति की संरचना रची गई. इसके पश्चात जीवों की उत्पत्ति हुई तथा सूरज, चाँद, तारे आदि इसी संरचनात्मक संचलन शक्ति से यथास्थान स्थापित हुए. तब से सभी ग्रह नक्षत्र सतत रूप से अपने पथ पर पुकराल में परिभ्रमण कर रहे हैं. आदि अनंतकाल से इन्ही प्राकृतिक तत्वों, जीवों एवं वनस्पतियों के व्यावहारिक शक्तियों को अपने जीवन के सांस्कारिक व्यवहार में उतार कर जीवन जीने की कला का प्रमाण ही आदिवासीपन है.
पुकराल के ग्रह, नक्षत्र, तारों की गति, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, वन आदि में होने वाले प्राकृतिक व्यवहार/परिवर्तन के सिद्धांतों एवं प्राकृतिक संसाधनों के आतंरिक संघर्षण से उत्पन्न तरंगित शक्तियों को सृष्टि के स्थायित्व जीवन संस्कारों के रूप में अपनाकर आदि अनंतकाल से इस पृथ्वी पर अपना जीवन निर्वाह करने वाला मूल स्वरुप में गोंड आदिवासी है.
आज भी आदिवासी प्राकृतिक संपदा (जल, जंगल और जमीन) से अपने प्राकृतिक व सामाजिक जीवन निर्वाह की आवाश्यकताओं की संयमित रूप से पूर्ती करता है, क्योंकि वह मानता है कि प्रकृति/पुकराल/श्रृष्टि सम्पूर्ण जीवों की सार्वजनिक संपत्ति है, जिसमे श्रृष्टि के समस्त जीवों का अधिकार और हक है. इसीलिए आदिवासी प्रकृति में स्थित पेड़-पौधे, झाड़ से कृषि यन्त्र या सांस्कारिक कार्यों आदि के लिए उपयोगी मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, पेड़, औषधीय पौधों, पत्ते, जड़, फूल, फल का उपयोग तथा अपने प्राकृतिक देवी-देवताओं की मान्यता (भोग/सेवा) अर्पित करने की परम्परा को पूरा करने के लिए जीव आदि की आवश्यकता पड़ने पर उस मिट्टी, पत्थर, पेड़, पौधे, जड़, पत्ते, फूल, फल, जीव इत्यादि को खोदने/उठाने/पकड़ने/तोड़ने/काटने/उखाड़ने के पूर्व बड़ादेव से आज्ञा लेता है.
आज्ञा लेने के विधान में वह पूर्व दिशा की ओर सम्मुख होकर वस्तु के करीब में स्वच्छ जल एवं गोबर से जमीन लीपकर उसमे चावल या गेहूं के आटे से दस दिशाओं वाला चउक बनाकर, उसपर दीपक जलाकर, बंदन लगाकर, हल्दी चावल, दाल, कोयाफूल (महुआ), निमऊ (रासईन), चढ़ाकर, कंडे की आग में राल (साल पेड़ का गोंद) का होम (मर्पित) कर पुकराल के दसों दिशाओं के देवी-देवताओं का आवाहन कर आमंत्रित किया जाता है और उनकी पूजा-अर्चना की जाती है. इस पूजा के माध्यम से आमंत्रित प्रकृति के सभी देवी-देवताओं के समक्ष पुकराल/प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति "बड़ादेव" को अवगत कराया जाता है कि, "हे आदि एवं अनंत प्रकृति शक्ति बड़ादेव मै/हम खेती करने के लिए हल/यंत्र बनाने/बिहाव (शादी-विवाह) के लिए मढ़वा/परिवार, समाज के सदस्य की बीमारी की दवा के लिए/देवता की सेवा (बदाई) देने आदि-आदि के लिए आपके बनाए हुए इस सुन्दरतम प्राकृतिक संरचना की मालकिन धरती माता/जल दाई/वन दाई की गोद से ......... (पेड़/पौधे/पत्ति/फूल/लकड़ी/जीव-जंतु का नाम लेकर) पेड़/पौधे/पत्ति/फूल/लकड़ी/जीव-जंतु को ले जाने की आज्ञा प्रदान कर. इनकी जल्दी पूर्ती के लिए धरती माता/जल दाई/वन दाई को उर्वरा-पानी प्रदान कर. इस पाप कृत्य और भूल-चूक के लिए मुझे और मेरे परिवार को क्षमा कर तथा आपकी दया से किए जाने वाले पुन्य कार्य की सफलता के लिए हमें आशीर्वाद प्रदान कर."
इस तरह वचन रखकर पूजा-अर्चना करने के पश्चात ही आवश्यकता अनुसार सामाजिक, सांस्कृतिक, कृषि यन्त्र आदि के उपयोग हेतु मिट्टी/पत्थर/लकड़ी/पेड़/पौधे/पत्ते/फूल/फल को खोदा/उठाया/तोड़ा/काटा या उखाडा जाता है तथा मान्यता की सेवा (वचन/बदना) पूरी करने के लिए जल, थल, वन, नभ के जीवों को पकड़ लिए जाता है. प्राकृतिक संरचना के समस्त संसाधनों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संस्कारों में आत्मीयता आदिवासी समाज के अलावा सायद ही किसी और समाज में हो.
देवताओं की सेवा (बदना की पूर्ती) एवं खान-पान की प्राकृतिक व्यवस्थागत संबंधों के बारे में सांस्कृतिक भाग में उल्लेख किया गया है, जो प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन हेतु मानवीय कर्तव्यों का एक अभिन्न अंग है, जिसके अंतर्गत जैवीय संतुलन को बबाये रखने की भी महत्ता मिलती है.
आदिम समुदाय पुकराल/प्रकृति (जिसमे धरती, जल, वायु, आकाश, अग्नि, चर, चर) के उत्पत्तिकर्ता को ही बड़ादेव मानता है और पंचतत्वों को देव. इन देवों में बड़ादेव विद्दमान है. देव के माध्यम से सम्पूर्ण प्रकृति और उसमे रहने वाले जीवों के संरक्षण हेतु जीवन तत्व एवं जीविकोरापर्जन के साधन उपलब्ध कराने वाला भी बड़ादेव ही है. इसीलिए बड़ादेव आदिम सभ्यता के संवाहक गोंड आदिवासियों का प्रथम पूज्य है. बड़ादेव द्वारा प्राणियों के जीवन के उपयोग के लिए बनाई हुई प्राकृतिक संसाधनों को बचाने वाला आदिवासी ही है, किन्तु आज पढ़े-लिखे लोगों की दुनिया में आदिवासी को जंगली कहा जाता है. इन तुच्छ वक्तव्यों से हमें निराश होने की जरूरत नहीं है. जंगल में रहने वाला जंगली है. प्रकृति का आनंद प्रकृति पारखी ही जानता है. जंगल का सुरम्य शांत वातावरण, निर्मल कल-कल बहती नदियाँ, झरनों की सुरमयी प्राकृतिक संगीत, पशु-पक्षियों का चहचहाना, कृषि परिवार के सदस्य गाय, बैल, भैस, बछड़ों का रम्भाना, बकरियों और मेमनाओं का मिमियाना प्राकृतिक जीवन संगीत में शामिल होकर बयार की तरह ग्रामीण जीवन में रची-बसी है. उसे कृत्रिम आस्था की दहलीज से निकली, ढोंगी, कपटपूर्ण, दिखावे की शहरी जीवन से कोई सरोकार नहीं है. इसलिए जल, जंगल और जमीन पर अपना हक जताकर स्वछन्द रूप से जीवन व्यतीत करने वाला आदिवासी वास्तव में शांतिप्रिय एवं संतोषी है. बड़ादेव को मानने वाला आदिवासी है. इसलिए बड़ादेव के बनाए हुए प्राकृतिक संसाधनों पर अपना हक जताने वाला भी केवल आदिवासी है. प्राकृतिक जीवन जीने वाला आदिवासी है. प्राकृतिक जीवन जीने का रहस्य समझने वाला आदिवासी है. मिलजुलकर, बाटकर खाने वाला आदिवासी है. अपनी परम्पराओं को कट्टरता से निभाने वाला आदिवासी है. सदियों से प्राकृतिक संपदा की रक्षा करने वाला आदिवासी है. भूखे-प्यासे रहकर भी भीख नहीं मांगने वाला आदिवासी है. अभाव एवं कठिनाईयों में रहकर भी धैर्य का परिचय देने वाला आदिवासी है. अपने गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुकरी-मुर्गी आदि पशु-पक्षियों की जान बचने के लिए शेर, चीते, बाघ, भालू के साथ लड़ जाने वाला आदिवासी है. फिर वह कौन सी कमजोरी है, जिसके कारण विश्व के मानवीय जीवन मूल्यों के इतिहास में प्राकृतिक शक्ति, आत्मबल, साहस, शौर्य, ज्ञान, विज्ञान, मूल सांस्कृतिक संरचना आदि प्राकृतिक एवं मानवीय सार्वभौमिक सत्ता और सत्यता का तिरंगा (प्रमाण) लेकर प्रथम पंक्ति पर सीना तानकर खडा रहने वाला आदिवासी आज कमर, रीढ़ और सिर झुकाए अंतिम कतार पर खड़ा पाखण्ड का तमाशा देख रहा है ?
गोंडवाना ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि गोंडवाना की धरा पर सबसे प्रथम गोंडवाना गणाधिपति एवं मानव संस्कारों के पितामह शम्भुसेक (महादेवों) की ८८ पीढ़ियां ईशा पूर्व लगभग ५,००० वर्ष के पूर्व १०,००० वर्षों तक अपनी अधिसत्ता स्थापित रखीं. इनमे प्रथम पीढ़ी के संभू महादेवों की जोड़ी- शम्भू-मूला, मध्य पीढ़ी की जोड़ी- शम्भू-गौरा एवं अंतिम ८८ वाँ पीढ़ी सम्भू-पार्वती की रही. पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, मानवशास्त्री यह मानते हैं कि सैंधव सभ्यता का प्राचीर नगर विन्यास, सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना और विकास संभू-पार्वती के काल के मध्य से अंतिम काल के मध्य हुआ. इसी ८८ वाँ पीढ़ी के अंतिम में ही घुमंतू जातियों (आर्यों) का गोंडवाना भू-भाग में आगमन हुआ. आर्यों के आगमन के पश्चात गोंडवाना के मूलनिवासियों के साथ कपटपूर्ण संघर्ष सुरु हो गए. कालान्तर में सैंधव सभ्यता का विनाश भी मूलनिवासियों और आर्यों के बीच हुई अनेक भयंकर संघर्षों का परिणाम है, जिसे हिंदू ग्रंथों में देव और असुरों का संग्राम "देवासुर संग्राम" कहा गया है. देवासुर संग्राम शीर्षक से ही उनकी कुटिलता का अंदाजा लगाया जा सकता है. उन्होंने स्वयं को "देव" और गोंडवाना के गणों को "असुर" (राक्षस/दानव) की संज्ञा दी. मानवों के बीच यह उच्चता और निम्नता का भाव आधुनिक युग में भी इन आर्य जातियों के मन में ठूस-ठूस कर भरा हुआ प्रतीत होता है. देव और असुरों का नाम अब "सवर्ण" और "सूद्र" हो गया है. इनके द्वारा मूलनिवासियों के साथ व्यवहार करने का स्वभाव/गुण आज भी वही है जो हजारों वर्ष पहले था तथा आदिवासियों/मूलनिवासियों में आज भी वही स्वभाव/गुण है जो लाखों वर्ष पहले था. उस समय कुटिल मानसिकता के साथ आमने-सामने का संघर्ष ज्यादा हुआ. आमने-सामने के संघर्ष में मूलनिवासी उन्हें भारी पड़ने के कारण वे धीरे-धीरे अपने संघर्षों का स्वरुप बदल कर अनेक रूपों में इसे द्वेषपूर्ण तरीके से जारी रखा है. इसलिए आज भी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक सत्ता प्राप्ति, व्यावसाय-व्यापार, शिक्षा, नौकरी आदि में भी अनंतकालिक भेद-भावपूर्ण व्यवहार जारी है. इसके अलावा वर्णवाद, जातिवाद, उग्रवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याएं भी देश के लोगों के साथ की जा रही असमानता एवं द्वेषपूर्ण व्यावहारिक परिस्थितियों का ही परिणाम है.
भारत के मूलनिवासियों की धार्मिक आस्था को तोड़ने और अलग आस्था स्थापित करने के लिए गैर मूलनिवासियों ने काल्पनिक एवं तार्किक दृष्टि से धर्म ग्रंथों, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता आदि की रचना की, जिसमे भी गोंडवाना के मूलनिवासियों को दास, दानव और राक्षस ही बनाया एवं अपने पात्रों को बुद्धिमान, चमत्कारी, शूरवीर, महामानव, भगवान के रूप में प्रस्तुतीकरण कर दास, दानव और राक्षसों की हत्यायें करवाता रहह. इन ग्रंथों की हजारों वर्षों की प्राचीनता बताई जा रही है. किन्तु यह बात भी तो सत्य है कि भारत में प्रथम छापे खाने की मशीन १८०० ईश्वी के प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा ब्रिटेन से लाई गई थी. देश में लिपि एवं कागज़ का विकास भी नहीं हुआ था, फिर ये ग्रन्थ प्राचीन काल में संस्कृत और हिंदी में कब और कैसे छप गए ? इनमे सांस्कृतिक, धार्मिक, मार्मिक, कार्मिक रूप से प्रस्तुत सुनियोजित लेखनशैली संस्कृत तथा हिंदी भाषा एवं लिपि का उपयोग क्या १८०० ईश्वी के पूर्व किया जा रहा था ? इन्हें लिखने वाले कौन हुए ? क्या उनकी लेखनी में मूलनिवासियों के सांस्कृतिक जीवन की सच्चाई नहीं झलकी ? ऐसे अनेक तथ्यात्मक प्रश्न आज मूलनिवासी समाज के सामने प्रकट हो रहे हैं, जिससे इस भावना को प्रबल बनाता है कि मूलनिवासियों को नीचा दिखाने के लिए हर स्तर पर धोखा करना गैर मूल्निवासियों का मूल मकसद बन गया. आज की वास्तविकता यही है कि वे किसी भी हालत में मूलनिवासियों को हर स्तर पर अपने से आगे बढते हुए देखना ही नहीं चाहते. इसीलिए मूलनिवासियों के विनाश के लिए अपनी मानसिक कुटिलता के हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं, जिससे सम्पूर्ण जल, जंगल और जमीन, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, धर्म, संस्कार आदि में कब्जा जमाकर उन्हें बेघरबार, बेसंस्कर कर उनकी कमर तोड़ी जा सके.
ग्रामीण जीवन को छोड़कर आज सभी मूलनिवासी उनकी इस कुटिल हिंदू मानसिकता के भवंरजाल में फंसकर पूरी रफ़्तार से हिंदुओं की दासिता स्वीकार कर रही है, अपना अस्तित्व खो कर. मर गया वह आदिवासी मूलनिवासी जो अपना अस्तित्व खो दिया. असली आदिवासी आज वास्तव में अपने प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, गौरवपूर्ण जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है, जिनके पास जीवन का साधन प्रकृति के सिवा कुछ भी नहीं है, फिर भी हिन्दुओं की दासिता स्वीकार करने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं है. मुझे उस ग्रामीण जीवन संस्कार पर फक्र है. नाज है.
गोंडी गाथाओं के इतिहास में गोंडवाना की धरा पर ८८ शंभूओं की गौरवशाली १०,००० वर्षों की पूर्ण अधिसत्ता के पश्चात १८०० ईश्वी के पूर्व लगभग सम्पूर्ण भारत में लगातार १६०० वर्षों तक एकक्षत्र राज करने वाले राजे-महाराजे आदिवासी हैं. अपने राज्यों में सोने-चांदी के सिक्के चलाने वाले आदिवासी हैं. सोना, चांदी, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि समस्त धातुओं के खोजकर्ता तथा प्रथम उपयोग करने वाले आदिवासी हैं. विश्व के मानचित्र में देश को "सोने की चिड़िया" का अलंकरण करवाने वाले आदिवासी हैं. अनाज की खोज एवं खेती करना सिखाने वाले आदिवासी हैं. शरीर ढकने के लिए वस्त्र, आवास एवं अंगार के अविष्कारक आदिवासी हैं. पशुपालन का पाठ पढाने वाले आदिवासी हैं. हथियारों के खोज करने वाले आदिवासी हैं. विज्ञान की शक्ति की खोज करने वाले आदिवासी है. प्रथम विमान (पुष्पक) के खोजकर्ता, बनाने वाले और चलाने वाले आदिवासी हैं. अंतरिक्ष के ज्ञाता आदिवासी हैं. प्रकृति के तत्वज्ञानी आदिवासी हैं. विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सा विशेषज्ञ आदिवासी हैं. मोहन जोदड़ों, हडप्पा, सिंधु घाटी की सभ्यता के नगर विन्यास, महलों की तकनीकी एवं शिल्पकला के जनक आदिवासी हैं, जिनकी स्थापत्यकला की खोज विश्व के वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य बना हुआ है. आदिवासियों के रीति रिवाज, स्थापत्यकला, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, तत्वज्ञान, तकनीकी का बेजोड़ नमूना दुनिया के किसी समाज और देश में दूर-दूर तक नजर नहीं आता. चाहे अमेरिका, चीन, फ्रांस, जापान या दुनिया के अन्य कोई देश. आज का विज्ञान उस युग के ज्ञान के गर्भ में भी स्थान नहीं बबाया था, जब आदिम पूर्वजों द्वारा जल, थल, नभ, वायु, आकाश, गृह, नक्षत्र, चर, अचर प्राणियों के तत्वज्ञान की सम्पूर्णता हासिल कर लिया था. ऐसे तत्व ज्ञानी, दूरदृष्टा आदिवासी पूर्वजों की संतानें आज बेघर, भूखा-नंगा, गरीब, लाचार होकर अपनी उजड़ी हुई आशियाने (जल, जंगल, जमीन) की ओर निहार रहे हैं.
युगों-युगों पूर्व आदिवासियों के शक्तिपीठों, विद्द्यापीथों से प्राप्त तत्वज्ञान के छोर तक पहुँच पाना आज भी विज्ञान के लिए कई योजन दूर का रहस्य है. विज्ञान प्राकृतिक सिद्धांतों से हटकर नहीं है, बल्कि बड़ादेव द्वारा बनाए हुए प्रकृति में पाए जाने वाले समस्त संसाधनों, तत्वों एवं उनमे नीहित प्राकृतिक शक्तियों को सिद्ध करने का विधान ही विज्ञान है. इसके अलावा वह ज्ञान जो विज्ञान से परे है, वह परा विज्ञान है. जहां पर विज्ञान की सीमा खत्म होती है, वहीँ से पराविज्ञान शुरू होता है.
"पराविज्ञान" की उपयोगिता और संरक्षण का ज्ञान भी मूलतः आदिवासियों ने प्रकृति से ही प्राप्त किया. यह पराविज्ञान प्रकृति की शक्ति एवं उसमे विश्वास की सत्ता को स्थापित कर्ता है. प्राकृतिक तत्वों और शारीरिक तत्वों की समरूपता को स्थापित करता है. पराविज्ञान का कार्यविधान प्राकृतिक शब्दशक्ति, शब्द्बंध की उत्पन्न आंतरिक एवं तांत्रिक ध्वनि शक्ति/वेग/वायु के माध्यम से पूरा कियाआता है. उपयोग की जानी वाली इन शब्दों की आवाज नहीं सुनाई जाती, किन्तु सब्दों से संबंध रखने वाला तत्व अंतर्ध्वनि की शक्ति से जागृत हो उठती है और कमजोर तत्वों और इन्द्रियों को अपनी शक्ति से समामेलित/समायोजित कर पुष्टता प्रदान करती है. इस विज्ञान/विधान की परम्परा का निर्वाह कलह, रोग-दोष से मुक्ति एवं घर-परिवार में सुखा-शांतिपूर्वक जीवन निर्वाह की प्रबलता हेतु किया जाता है.इस विज्ञान का सांस्कारिक विधान ही आदिम समाज का अमूल्य धरोहर है. यह धरोहर उनके जीवन के रोम-रोम में सांस्कारिक रूप से मानव कल्याण के लिए चलायमान/गुंजायमान है. समाज में इस परम्परा का मानव कल्याण के लिए उपयोग करने वालों की कमी नहीं है. यह परम्परा ग्रामीण जीवन के अलावा शहरी जीवन में भी देखा जा सकता है.
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि आदिम जनजाति बाहूल्य प्रान्तों में आदिवासी ही नहीं आधुनिक युग में अपने आप को उच्च श्रेणी में स्थापित करने वाले दीगर समुदाय के पढ़े-लिखे उद्योगपति, सर्वोच्च स्तर के अधिकारी एवं शहरी जीवन के लोगों द्वारा इसे नकारते हुए और अंधविश्वास करार देते हुए भी आदिवासी संस्कृति की प्रकृति एवं पूर्वज मूल से उत्पन्न इसकी मान्यता के विधान के रास्ते पर जाते हुए देखे जा सकते हैं. इस विज्ञान/मान्यता/विधान के जानकार (पराविज्ञानी) लोगों के लिए शहरों से अज्ञात रूप से गाडियां भेजकर उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से लाकर उनके द्वारा घर, बँगला एवं स्वयं या परिवार के संकट, रोग-दोष से छुटकारे, जीवन में विलुप्त प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्परा और इससे अप्राकृतिक, असांस्कारिक, असामाजिक, पारिवारिक जीवन में उत्पन्न कुंठा, दुख और अशांति से मुक्त होने के लिए काम कराए जा रहे हैं. उन्हें आने-जाने की सुविधा, कुछ रुपए-पैसे देकर उनका इस्तेमाल किया जा रहा है, किन्तु अपनी जुबान से यह बात बताने के लिए परहेज करता हुआ स्वार्थी इंसान आदिवासियों के इस विधान को अंधविश्वास और रूढ़िवादी कहने से बाज नहीं आते. प्रकृति की वास्तविक शक्ति से परिपूर्ण पूर्वजों की बनाई हुई सामाजिक संस्कृति, परम्परा को भूलकर कल्पना के संसार में भटक रहे बुद्धिजीवी, पढ़े-लिखे लोगों ने प्राकृतिक, सांस्कृतिक, प्रामाणिक मानवीय ग्रामीण जीवनमूल्यों/सिद्धांतों/विधानों को हमेशा से नकारा, अंधविश्वास और रूढ़िवादी साबित करने का प्रयास किया, इसलिए उन्हें लोगों की नजरों से बचाकर, छुप-छुप कर ऐसे कार्य कराने की जरूरत पड़ रही है.
पराविज्ञानी आदिवासी प्राकृतिक जीव एवं मानव समाज कल्याण के लिए सेनानायक की तरह कार्य करता है, परन्तु उनकी सेना में मिशाईल, तोप, गोले, मशीनगन, रायफल चलाने वाले इंसान नहीं होते. बल्कि प्राकृतिक तत्व, संसाधन, जीव, कीट-पतंगें उनकी सैनिक होते हैं, जो मिसाईल, तोप, गोले, मशीनगन, रायफल आदि से कोई वास्ता नहीं रखते. सेनानायक (पराविज्ञानी) के आदेशानुसार इनके द्वारा रक्षा/हमला करने की दूरी या स्थान का कोई दायरा नहीं होता. सेनानायक जहां भी और जिस साधन पर खड़ा हो जाए और उसे आदेश देने की जरूरत पड़े, ऐसी स्थिति में अंतर्मन की विधा से उत्पन्न सब्दबंध की शक्ति दशों दिशाओं में रक्षा/मारक करने की क्षमता रखता है. प्रकृति के वायुमंडल में प्रस्फूटित शब्दबंध अंतर्ध्वनित बेतार आदेश का पालन करने के लिए उसके प्राकृतिक सैनिकों के विभिन्न स्वरूपों का दस्ता अपने कर्तव्यों का पालन करने से नहीं चूकते. यह शक्ति न ही आधुनिक अश्त्र है न शस्त्र है. फिर भी विश्व के समस्त आधुनिक परमाणु बमों की तुलना इस पराविज्ञान की एक अणुशक्ति के विद्ध्वंश के बराबर भी नहीं आंकी जा सकती. जिस प्रकार वैज्ञानिक शोध और ज्ञान अर्जन के लिए आधुनिक संसाधनों का निर्माण एवं उपयोग करता है, उसी तरह पराविज्ञानी जीवन भर प्राकृतिक संसाधनों, तत्वों से इस ज्ञान शक्ति का शोध और संरक्षण करता है.
आज पराविज्ञानी आदिवासियों द्वारा इस ज्ञान का उपयोग करने की मानसिकता जरूर संकीर्ण हो चुकी है और इसकी छोटी-मोटी मारक क्षमता का उपयोग जन कल्याण के लिए कम दुरूपयोग के रूप में अपने सगे संबंधियों पर ज्यादा किया जाता है. समाज में इस परम्परा का मानव कल्याण के लिए उपयोग करने वालों की कमी नहीं है. यह परंपरा ग्रामीण जीवन के अलावा शहरी जीवन में भी देखा जा सकता है. आदिवासी ही नहीं दीगर समाज भी दैवीय एवं पूर्वज मूलक संस्कृति की मान्यता से अपने आप को मुक्त रखने के बाद भी परिवार में उत्पन्न कलह/रोग-दोष से मुक्ति हेतु इलाज में अंतहीन धन-संपत्ति खोकर, थक-हारने के पश्चात अंतिम जीवन प्रकाश के विकत्प के रूप में मात्र पराविज्ञान का मार्ग ही बचता है, जो विशाल एवं आधुनिक मानव समाज के ह्रदय के किसी कोने में "अंधविश्वास" के रूप में पनप रहा है.
यदि वर्तमान जीवन में इसे अंधविश्वास कहा जाए तो उसे क्या कहा जाए, जब लोगों के द्वारा देश के महापुरषों के स्वास्थ्य लाभ, क्रिकेट खिलाड़ियों के शक्तिपूर्ण प्रदर्शन, देश की कठिन एवं संकटकालीन परिस्थितियों के समय माईक लगाकर शहर मोहल्ले में अग्निकुंड के चारों ओर बैठकर विभिन्न जीवनदाईनी अनाज, आधुनिक हवन सामग्रियों को अग्नि में जलाते हुए मंत्रजाप करते है ? इसकी सार्थकता क्या है ? ऐसा करने से क्या फायदा है ? यह पराविज्ञान की ही विकृत दिधा है. इस प्रक्रिया में ध्वनी प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा जीवीय तत्वों का ही विनाश होता है. जिन्हें हम बना नहीं सकते, उन्हें हानि पहुँचाने से ज्यादा बचाने की मानसिकता होनी चाहिए. सार्वजनिक तत्वों, संसाधनों को पहुँचने वाली संभावित हानि से बचने की मानसिकता ही सर्वोपरी मानवीय मानसिकता है.
आधुनिक भारत में जंगलों में रहकर भी अपने गोंडवाना भू-भाग, अपनी जन्मभूमि की रक्षा के खातिर फिरंगियों से सबसे पहले लोहा लेने वाले सूरवीर तथा तोप के गोले से छलनी होने वाली छाती आदिवासि
🫡वल्ले वल्ले धन्नई 🙏🙏
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